Hindi Subjective Model Paper 2022 Bihar Board

Bihar Board Subjective Hindi Model Paper download 2022 | 10th Official Hindi Model Paper download 2022 PDF

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Bihar Board Matric Model Paper -4 2022

खण्ड-ब/SECTION-B

गैर-वस्तुनिष्ठ प्रश्न/Non-Objective Type Questions
1. निम्नलिखित गद्यांशों में से किसी एक गद्यांश को पढ़कर नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर दें। प्रत्येक प्रश्न दो अंकों का होगा।

(क) अंग्रेजी सेनाध्यक्षों में क्लाइव का बहुत ऊँचा स्थान था। उसमें अदम्य उत्साह और वीरता के गुण थे । वह दयालु, गंभीर तथा कुशल राजनीतिज्ञ था। वह कभी कठिनाइयों से नहीं घबराता था और जी तोड़ परिश्रम करता था । इंग्लैण्ड में उसके शत्रुओं ने उसके विरुिद्ध एक लड़ाई छेड़ी, जिसमें उस पर बेईमानी का आरोप लगाया था। यद्यपि वहाँ की संसद ने उसे इस आरोप से मुक्त कर निर्दोष घोषित कर दिया, तथापि वह सर्वथा निर्दोष हो ऐसा नहीं माना जा सकता । जहाँ तक इंग्लैण्ड के प्रति की गई उसकी महान सेवाओं का प्रश्न है, वहाँ तक तो सब ठीक है,

        परन्तु ‘उसने भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना की’ इस हेतु मात्र से ही उसे दोषहीन बताया जाना सर्वथा अनुचित है। कारण यह है कि उसमें नैतिक कमजोरियाँ बहुत ही अधिक थीं। अपने देश के लिए अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए नीच से नीच कार्य करने से भी नहीं चूकता था। अमीचंद के साथ की गई धोखेबाजी और मीर जाफर के साथ किया गया उसका बेईमानी से भरा व्यवहार अक्षम्य है। उसके दुर्गुणों का अनुकरण उसके कर्मचारियों ने भी किया, परिणामस्वरूप ब्रिटिश इण्डिया कम्पनी में भ्रष्टाचार का बोल-बाला बढ़ गया।

प्रश्न:
(i) क्लाइव कौन था, उसमें कौन-कौन गुण थे 

(ii) उसे बेईमान कौन सिद्ध करना चाहता था 

(iii) इंग्लैण्ड की संसद ने उसे निर्दोष क्यों घोषित किया ?

(iv) उसके तीन नैतिक कमजोरियों का संकेत दीजिए ।

(v) उसकी इन कमजोरियों का क्या परिणाम निकला ?

उत्तर: (i) क्लाइव अंग्रेजी सेनाध्यक्ष था । उसमें अदम्य उत्साह और वीरता के गुण थे ।

(ii) इंगलैंड में उनके प्रतिद्वन्द्वी शत्रु उसे बेईमान सिद्ध करना चाहते थे।

(iii) इंगलैंड के प्रति क्लाइव की सेवाओं को देखते हुए वहाँ की संसद ने उसे निर्दोष घोषित कर दिया।

(iv) क्लाइव की तीन नैतिक कमजोरियाँ थीं-(क) अपने देशहित के लिए नीच से नीच कार्य करने से नहीं चूकता था । (ख) अमीचंद के साथ धोखेबाजी की । (ग) मीरजाफर के साथ बेईमानी करने से नहीं हिचका ।

(v) क्लाइव की कमजोरियों के कारण ईस्ट इंडिया कंपनी में भ्रष्टाचार का बोलबाला बढ़ गया ।

(ख)  नि:स्वार्थ भाव से पीड़ित मानवता की सेवा सबसे बड़ा धर्म है, उपकार है । व्यक्ति परोपकार कई प्रकार से कर सकता है । हम आर्थिक रूप से या उसके माध्यम से दूसरों का हित कर सकते हैं । भूखे को रोटी खिला सकते हैं । नंगे का तन ढक सकते हैं । धर्मशालाएँ बनावा सकते हैं। यदि हम धन से वंचित हैं, तो तन मन से भी दूसरों की भलाई कर सकते हैं । निरक्षरों को शिक्षा दान दे सकते हैं, उन्हें साक्षर बना सकते हैं । यदि देखा जाय तो यही सच्चा दान है । इससे हम अपने और परिवार के लिए कुछ सुख-शांति प्राप्त कर सकते हैं । इसके सिवा शारीरिक शक्ति द्वारा भी परोपकार किया जा सकता है । भूले-भटके को राह दिखा सकते हैं । प्यासे को पानी पिला सकते हैं । अबलाओं की रक्षा कर सकते हैं ।

प्रश्न :-
(i) परोपकार किसे कहते हैं ?
(ii) परोपकार किस प्रकार किया जा सकता है ?
(iii) सच्चा दान क्या है ?
(iv) सुख-शांति प्राप्त करने का मुख्य साधन क्या है ?
(v) बिना आर्थिक सहायता के परोपकार किस प्रकार किया जा सकता है ?

उत्तर:
(i) नि:स्वार्थ भाव से मानवता की सेवा करना परोपकार कहलाता है ।

(ii) किसी जरूरतमंद को आर्थिक मदद देकर व आवश्यक वस्तु देकर परोपकार किया जा सकता है ।

(iii) सच्चा दान शिक्षा दान है ।

(iv) सुख-शांति प्राप्त करने का मुख्य साधन परोपकार करना है, सच्चा दान करना है।

(v) भूले-भटके को राह दिखाकर, प्यासे को पानी पिलाकर तथा अबलाओं की रक्षा कर बिना आर्थिक सहायता के परोपकार किया जा सकता है।

2. निम्नलिखित गद्यांशों में से किसी एक गद्यांश को पढ़कर नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर दें । प्रत्येक प्रश्न दो अंकों का होगा। 5×2 = 10

(क) विद्यापति के समय में भारत में आमतौर से दिल्ली सल्तनत का राज था। इसे स्पष्ट रूप से कहा जाए कि विद्यापति के जीवनकाल में दिल्ली पर तुगलक और लोदी वंश का शासन था । जाहिर है कि विद्यापति के जन्म के बहुत पहले भारत में इस्लाम का आगमन हो चुका था और दिल्ली सल्तनत भी बहुत पहले स्थापित हो चुकी थी । भारत की जनता ने काफी पहले दिल्ली सल्तनत को स्वीकार कर लिया था, बावजूद इसके कि पूरे देश पर दिल्ली सल्तनत का शासन नहीं था । लेकिन व्यवहार में उनका प्रभुत्व देश पर था। ऐसी राजनीतिक परिस्थिति में विद्यापति ने कीर्तिलता और कीर्तिपताका की रचना की । खुसरो और विद्यापति में फर्क यह है कि खुसरो दिल्ली में रहते थे और विद्यापति मिथिला में । दिल्ली में दिल्ली सल्तनत की राजधानी थी, फलतः खुसरो का उससे सीधा लगाव था । मिथिला दिल्ली से बहुत दूर देश  के पूर्वी क्षेत्र का अंग होने के कारण केन्द्रीय सत्ता में होनेवाली उथल-पुथल के तात्कालिक प्रभाव से दूर रही है । मिथिला में, जो अन्य स्थानों की अपेक्षा अधिक समय तक तुर्क आक्रमणों से अछूती रही थी, संस्कृत विद्या के एक केंद्र का विकास हुआ, क्योंकि वहाँ भारी संख्या में ब्राह्मण एकत्र हो सके जिन्होंने अपनी कृतियों में संस्कृत साहित्य की परंपरा को सुरक्षित रखा । इस कथन का महत्त्व इस बात को ध्यान में रखकर समझा जा सकता है कि दिल्ली सल्तनत के शासनकाल में फारसी के राजभाषा हो जाने से संस्कृत का महत्त्व कम हो गया और इसी कारण समाज में ब्राह्मणों का महत्त्व भी घट गया ।

                    मिथिला में संस्कृत भाषा-साहित्य की परंपरा और ब्राह्मणों का प्रभाव  कायम रहने के बावजूद विद्यापति के समय में बदलाव आया । मिथिला पर असलान शाह का हमला भी हुआ और भाषा-साहित्य के अखिल भारतीय परिदृश्य का प्रभाव भी पड़ा । इतिहासकार राधाकृष्ण चौधरी लिखते हैं, “विद्यापति के समय में इस्लाम और हिंदू धर्म के बीच भी एक प्रकार का आदान-प्रदान शुरू हो चुका था और उत्तर बिहार उस समय सूफियों का एक प्रधान केंद्र बन चुका था । महाराज शिव सिंह ने कुछ मुसलमान संतों और फकीरों को जो दान दिया था उसका प्रमाण भी मिला है । हिंदू-मुसलमान का संबंध मिथिला-क्षेत्र में काफी अच्छा था और ज्योतिरीश्वर ठाकुर के ‘वर्ण- रत्नाकर’ में जो विदेशी अरबी-फारसी शब्द हैं, इससे यह सिद्ध होता है कि राजनीतिक आधिपत्य के बहुत पूर्व ही मिथिला का अरबी-फारसी से संपर्क हो गया था।

प्रश्न :
(i) उपर्युक्त गद्यांश का एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए ।
(ii) विद्यापति ने किस राजनीतिक परिस्थिति में ‘कीर्तिलता’ और ‘कीर्तिपताका’ की रचना की ?
(iii) मिथिला में संस्कृत विद्या के एक केंद्र का विकास क्यों संभव हुआ?
(iv) दिल्ली सल्तनत के शासन काल में संस्कृत एवं ब्राह्मणों का महत्त्व क्यों कम हो गया ?
(v) विद्यापति के समय में दिल्ली पर किस वंश का आधिपत्य था ।

उत्तर:

(i) शीर्षक-‘विद्यापति के युग की राजनीतिक परिस्थितियाँ’ ।

(ii) विद्यापति के जीवन-काल में दिल्ली में तुगलक और लोदी वंश का राज्य था । भारत में इस्लाम का आगमन हो चुका था और दिल्ली सल्तनत की भी स्थापना हो चुकी थी । दिल्ली सल्तनत का प्रभुत्व पूरे देश पर था । इसी राजनीतिक परिस्थिति में विद्यापति ने ‘कीर्तिलता’ और ‘कीर्तिपताका’ की रचना की।

(iii) मिथिला दिल्ली से बहुत दूर देश के पूर्वी क्षेत्र का अंग होने के कारण केंद्रीय सत्ता में होनेवाली उथल-पुथल के तात्कालिक प्रभाव और भारत के अन्य स्थानों की अपेक्षा अधिक समय तक तुर्क आक्रमणों से अछूती रही । अतः, वहाँ भारी संख्या में ब्राह्मण एकत्र हुए और अपनी कृतियों में संस्कृत-साहित्य की परंपरा को सुरक्षित रखा । इस प्रकार, मिथिला में संस्कृत विद्या के एक केंद्र का विकास हुआ ।

(iv) दिल्ली सल्तनत के शासन काल में फारसी राजभाषा के रूप में स्वीकृत थी । फलस्वरूप संस्कृत का महत्त्व घट गया और इसी कारण समाज में ब्राह्मणों का महत्त्व भी कम हो गया ।

(v) विद्यापति के समय में दिल्ली पर तुगलक और लोदी वंश का आधिपत्य था।

(ख) आधुनिक हिंदी साहित्य के संबंध में प्रसिद्ध कथाकार नरेंद्र कोहली कहते हैं, जब हम साहित्य के असर की बात करते हैं तो पहले तो हमें यह निर्णय करना होगा कि साहित्य के जरिए परिवर्तन की प्रक्रिया क्या है ? साहित्य कोई सरकारी आदेश तो नहीं कि आज जारी किया गया और कल समाज बदल गया । हमारे लिखते या लोगों के पढ़ते ही सारे दोष मिट जाएँ, यह अपेक्षा गलत है । हम अपना संदेश प्रसारित करते हैं । आगे समाज की अपनी इच्छा पर निर्भर है कि वह उसे स्वीकारे या न स्वीकारे । और, समाज कोई एक इकाई दूर थी नहीं है । इसके कई अंग हैं । साहित्य का जो रूप समाज के लिए उपयोगी होता है, उसे ही वह ग्रहण कर लेता है । सबकी अपनी-अपनी रुचि है, अपना-अपना चिंतन है ।

      दोनों में बड़ा भेद है । रामायण, महाभारत या उपनिषदों की बात आज हम करते हैं तो इसीलिए कि वे आज भी प्रासंगिक हैं । फिर, हम भारतीय हैं तो यह बिलकुल जरूरी नहीं है कि भारत के साहित्य से ही संस्कार ग्रहण करें । किसी रचना को समाज अगर ग्रहण नहीं करता है तो इसका मतलब यह है कि उसमें दम नहीं है । ऐसी किताबें पढी ही नहीं जाती हैं। इसमें भी सारे साहित्यकारों को एक नियम में आबद्ध करके एक ही लाठी से नहीं हाँक सकते हैं। साहित्य एक आदर्श आपके सामने रखता है । उस आदर्श की ओर कम लोग आकृष्ट होते हैं । अधिकांश लोग यहाँ मनोरंजन के लिए आते हैं । मनोरंजन की रेखा को पार करके जब वह ऊर्ध्वगमन करता है तब वास्तविक संस्कार मिलता है। चार सौ साल पहले लिखे गए रामचरितमानस की प्रासंगिकता हम आज ढूँढ़ रहे हैं ।

       समकालीन कृतियों में जो महत्त्वपूर्ण हैं, ग्रहण करने के लायक  हैं, उनको ग्रहण किया जाएगा । लेकिन, अब तुलसी हर साल तो पैदा हो नहीं सकते हैं । तुलसी जैसा रचनाकार तो कई सदियों में एक पैदा होता है । दूसरी तरफ अपने समकालीनों को हम ऊँचाई पर देख नहीं सकते हैं । यह हमें कष्टकर लगता है, इसलिए भी बहुत बार रोना रोया जाता है । यह बात केवल हिंदी के साहित्य में हो, ऐसा नहीं है । ऐसा दुनिया भर के साहित्य में है । हिंदी में इसका एक कारण यह भी है कि हमारी अगली पीढ़ी शिक्षा ग्रहण कर रही है अँगरेजी में । वह हिंदी के साहित्य को कैसे पढ़ेगी और पढ़ेगी भी तो उसका संस्कार कैसे पाएगी ?

प्रश्न :
(i) प्रस्तुत गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए ।
(ii) साहित्य के प्रभाव की बात करने के पहले हमें क्या निर्णय करना होगा?
(iii) साहित्य के उद्देश्य और ‘पाठक और साहित्य’ के संबंध में लेखक ने क्या कहा है ?
(iv) तुलसी के संबंध में लेखक ने क्या कहा है ?
(v) साहित्य का कौन-सा रूप समाज स्वीकार करता है ?

उत्तर:
(i) शीर्षक-पाठक और साहित्य का संबंध ।

(ii) साहित्य के प्रभाव की बात करने के पहले हमें यह निर्णय करना होगा कि साहित्य के माध्यम से परिवर्तन की प्रक्रिया क्या है।

(iii) साहित्य के उद्देश्य के संबंध में लेखक कहता है कि साहित्य का उद्देश्य है मनोरंजन के माध्यम से किसी आदर्श की स्थापना करना । पाठक साहित्य का अध्ययन मूलतः अपने मनोरंजन के लिए करता है । मनोरंजन की रेखा पार करने के बाद उसे साहित्य के ध्वन्यार्थ और आदर्श सत्य से साक्षात्कार होता है और वह वहाँ से वास्तविक संस्कार ग्रहण करता है ।

(iv) तुलसी के संबंध में लेखक ने कहा है कि तुलसी एक महान् साहित्यकार हैं । तुलसी जैसा रचनाकार तो कई सदियों में एक पैदा होता है। तुलसी ऐसा महाकवि हर साल पैदा नहीं हो सकता ।

(v) साहित्य का जो रूप समाज के लिए उपयोगी होता है उसे ही समाज ग्रहण करता है।

3. निम्नलिखित में से किसी एक विषय पर दिए गए संकेत-बिन्दुओं के आधार पर लगभग 250-300 शब्दों में निबंध लिखें
(क) छुआछूत का अभिशाप

(ख) परिश्रम की महत्ता

(ग) मित्रता

(घ) सरस्वती पूजा

(ङ) राष्ट्रीय पर्व (स्वतंत्रता दिवस)

उत्तर-
(क) छुआछूत का अभिशाप

‘छुआछूत’ का अर्थ है-निम्न वर्ग की जातियों को अछूत मानने की भावना । दुर्भाग्य से भारतवर्ष में छुआछूत की गंदी भावना कई शताब्दियों से प्रचलित है । हिन्दू समाज में कर्म के आधार पर मुख्यतः चार जातियाँ थीं-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । इनमें से शूद्र जन अपने परिश्रम के बल पर आजीविका कमाते थे । स्वाभाविक रूप से उन्हें मजूदरी, सफाई, चमड़ा रंगना आदि कर्म करने पड़ते थे,

              इनके इन कर्मों के कारण शेष जातियों ने इन्हें नीच कहकर अपमानित किया तथा इनके छूने तक को अपवित्र माना । अपनी दीन-हीन अवस्था के कारण ये लोग गंदे रहते थे । इसलिए उनकी गंदगी को उच्च वर्ग ने बहाना बना दिया । यदि बात गंदगी तक सीमित रहती, तो कोई बुरी बात न थी । परंतु उच्च वर्ग ने मल ढोने वाली सारी जाति को ही जन्मतः अछूत मान लिया ।
            मुगल काल में विभिन्न धार्मिक आंदोलनों के कारण हिन्दू समाज अति-शुद्धतावादी बन गया था । विदेशी कुप्रभाव से बचने के लिए और भी रोक-टोक लगा दी गई थी । इससे अछूतों पर और भी शिकंजा कसता चला गया । वे अति अपमानित, दलित और उपेक्षित होते चले गये । गोस्वामी तुलसीदास की निम्नलिखित चौपाई से पता चलता है कि अछूतों के साथ कैसा दुर्व्यवहार किया जाता था-   ढोल गँवार शूद्र पशु नारी । ये सब ताड़न के अधिकारी ।।
        n    अछूतों के साथ अतीत काल में पशुओं जैसा व्यवहार किया गया । उन्हें जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं तक से वंचित रखा गया । उनकी बस्तियों को गाँवों और नगरों से दूर रखा गया। उन्हें पीने के लिए स्वच्छ जल तक नहीं दिया जाता था । विवश होकर वे ऐसे गड्ढों और जोहड़ों का पानी पीत थे, जिन्हें पशु प्रयोग करते थे । यदि किसी सवर्ण प्राणी को छू भी दें तो उन्हें अमानवीय यातनाएँ दी जाती थीं । सवर्णों की गलियों में घुसने से पहले उन्हें आवाज देकर आना पड़ता था । न उन्हें मंदिर में जाने का हक था, न पढ़ने-लिखने का । उनके उद्धार के सभी मार्ग बंद कर दिए गए ।

          वास्तव में सवर्ण लोग उन्हें सदा दबाए रखने के लिए शोषण करने के लिए ऐसा करते थे । यहाँ तक कि विवाहादि के अवसर पर वे मनचाही खुशी नहीं मना सकते थे । घोड़ी, बैंड आदि इनके लिए वर्जित थे । इन सब यातनाओं से अपमानित होकर ही एक बार डा० अंबेदकर ने महात्मा गाँधी से कहा था-“गाँधीजी, मेरा कोई अपना देश नहीं है । इस भूमि को मैं कैसे देश कहूँ और इस धर्म को कैसे मानूँ, जबकि हमसे पशुओं से भी अधिक बुरा व्यवहार किया जाता छुआछूत की समस्या का समाधान करने के लिए सर्वप्रथम स्वामी दयानंद ने प्रयास किया। उन्होंने अछूतों को गले लगाकर ऊँच-नीच की रूढ़ि पर प्रहार किया । उनके बाद सबसे अधिक प्रभावी प्रयास किया महात्मा गाँधी ने ।

        उन्होंने कहा-“अस्पृश्यता मानवता और ईश्वर के प्रति अपराध है ।” उन्होंने केवल भाषण ही नहीं दिए, अपितु भंगियों की बस्ती में जाकर वे उनके बीच रहे । उन्होंने दलितों को नया नाम दिया ‘हरिजन’ । उनके विचार और व्यवहार का व्यापक प्रभाव हुआ । परिणामस्वरूप छुआछूत की भावना काफी मंद पड़ गई है । उन पर होने वाले अत्याचार कम हुए हैं । परंतु अभी भी उनको नीच माना जाता है । वे अभी भी समाज के मुख्य धारा से कटे हुए हैं । शेष समाउन्हें अपने समान मानकर अपनाने के लिए तैयार नहीं है ।
                    स्वतंत्रता के पश्चात् भारतीय संविधान का निर्माण हुआ । सौभाग्य से संविधान निर्माता डॉ० अंबेदकर भी अछूत कही जाने वाली जाति में से थे । उन्होंने संविधान में छुआछूत को कानूनी अपराध घोषित किया तथा अछूतों के उद्धार के लिए अनेक कानून बनाए । उन्हें आर्थिक तथा सामाजिक स्तर पर उठाने के लिए नौकरियों में वरीयता दी गई । परिणामस्वरूप उनकी स्थिति में कुछ सुधार आया । सन् 1990 में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए नौकरियों में 49 प्रतिशत आरक्षण करके उनकी स्थिति को और अधिक मजबूत बनाने का प्रयत्न किया। इस समस्या का वास्तविक निदान समाज के हाथों में है । जब तक समाज का उच्च वर्ग अछूतों को अपने समान मानकर बढ़ने का अवसर नहीं देगा और निम्न वर्ग ऊँचा उठने की कोशिश नहीं करेगा, तब तक सभी सरकारी या गैर-सरकारी उपाय व्यर्थ जाते रहेंगे। इसके लिए सामाजिक नेताओं को जनसमाज में चेतना जाग्रत करनी चाहिए । उन्हें समझना चाहिए कि जब बच्चे का शौच साफ करने पर माँ अछूत नहीं मानी जाती तो मल ढोले वाली जातियाँ क्यों अछूत मानी जाएँ?

       मानसिक परिवर्तनों के साथ-साथ एक उपाय यह भी है कि अछूतों की आर्थिक दशा को सुधारा जाए । इससे उन्हें समाज में मान मिलेगा और वे बराबरी की जिंदगी जी सकेंगे । फ्लश के शौचालय बनवाने तथा अपनी सफाई स्वयं करने से भी कलंक को धोने में मदद मिलेगी ।

(ख) परिश्रम की महत्ता

भूमिका : परिश्रम ही सफलता की कुंजी है । बिना परिश्रम के कुछ भी प्राप्त करना संभव नहीं, इसलिए परिश्रम करना प्रत्येक का कर्तव्य है । इतिहास इसका साक्षी है कि जिन्होंने परिश्रम का महत्व नहीं समझा, उनका पतन निश्चित रूप से हुआ ।
              परिश्रम का अर्थ-सृष्टि के सारे जीव परिश्रम के सहारे ही जीते हैं, चींटी से लेकर ज्ञानपुंज मानव तक अपना जीवन यापन परिश्रम से ही करते हैं। अतएव परिश्रम का संबल पकड़े रहना सबका धर्म है । किन्तु इस बात का सदैव ध्यान रखना चाहिए कि परिश्रम वही है जिसमें निर्माण होता है, रचना होती है । नदी के किनारे बैठ कर पानी पीटना भी परिश्रम है, लेकिन उससे कोई निर्माण नहीं होता, अतः वह परिश्रम की कोटि में नहीं आता ।

उन्नति का केन्द्र बिन्दु-परिश्रम मानव का मुख्य केन्द्र बिन्दु है । परिश्रम करने वाला ही जीवन संग्राम में सफल होता है। जो छात्र परिश्रम नही करता परीक्षा में असफल होता है । इसी प्रकार किसान के परिश्रम पर देश का विकास निर्भर करता है तो श्रमिक के श्रम पर उद्योग । कोई भी देश बिना परिश्रम किए सम्पन्न राष्ट्र कभी नहीं कहला सकता। जापान श्रम के फलस्वरूप ही विश्व में उत्तम स्थान रखता है । इसीलिए गाँधी, विनोबा भावे, नेहरू ने देशवासियों को श्रम करने का संदेश दिया । अब्राहम लिंकन, वाशिंगटन, अम्बेदकर, शास्त्री आदि परिश्रम के कारण ही यशस्वी पुरुष कहलाये, क्योंकि

श्रमेण लभते विद्या, श्रमेण लभते धनम् ।
श्रमेण लभते ज्ञानम्, श्रमेण लभते यशम् ॥

परिश्रम का लाभ-कुछ लोग परिश्रम के अपेक्षा भाग्य को महत्व देते हैं । कहते हैं-भाग्य में लिखा होता है, वही होता है । किन्तु बिना हाथ हिलाए भोजन भी मुँह में नहीं जाता । अतः केवल भाग्य के साहरे बैठना ठीक नहीं है । कहते हैं-परिश्रमी पुरुष अपना भाग्य पलट देते हैं।

उपसंहार- अतः हर व्यक्ति को परिश्रम करना चाहिए, क्योंकि श्रमजीवी ही ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ तथा देशप्रेमी होते हैं । परिश्रमी का स्वास्थ्य भी ठीक रहता है । किन्तु अकर्मण्य अथवा कामचोर, बेइमान, निष्ठुर और देशद्रोही होते हैं । ऐसे व्यक्ति देश, जाति की हानि के सिवाय और कुछ नहीं करते । सिर्फ श्रमी या परिश्रमी ही इतिहास के पन्नों पर अपना नाम अमर रखते हैं ।

(ग) मित्रता

 मित्रता का अर्थ है—परस्पर नि:स्वार्थ एवं सौहार्द्रपूर्ण सम्बन्ध की स्थापना । मित्रता अपने में एक व्यापक अर्थ रखता है। एक सच्चा मित्र अपने सगे-सम्बन्धियों से भी अधिक विश्वसनीय, सच्चा-सहचर तथा हितैषी होता है। विपत्ति के समय में वह अपने मित्र के लिए अपने जीवन की
आहुति देने को सदैव तत्पर रहता है।

           मित्र चयन में सतर्कता :- मित्र का चयन करने में सदैव सतर्कता बरतने की आवश्यकता होती है। सच्चा मित्र हमारे सुख-दुःख में नि:स्वार्थ भाव से हमारी सहायता करता है । हम अपने कष्टों एवं समस्याओं की उससे खुलकर चर्चा कर सकते हैं। जो बातें हम अपने परिवार  बतलाते, अपने मित्र को बिना किसी हिचकिचाहट के प्रकट कर देते हैं। इसके विपरीत कपटी मित्र से सदैव हानि तथा खतरे की सम्भावना रहती है। वे चापलूस एवं धूर्त होते हैं, जबकि सच्चे मित्र स्पष्टवादी, निष्कपट तथा सात्विक विचारवाले होते हैं।

           सच्चे मित्र से लाभ : सच्चे मित्र की संगति से लाभ ही लाभ है।  सत्संगति कल्पलता के समान है। कबीरदास जी का कथन है-
“कबिरा संगति साधु की हरै और की व्याधि । संगति बुरी असाधु की आठों पहर उपाधि ॥ भूमिका : अच्छे मित्रों के सानिध्य से बिगड़े हुए काम भी बन जाते हैं तथा स्वर्गीय आनन्द की अनुभूति होती है। बुरे मित्र से हानि : बुरे मित्र से हानि ही होती हैं वह कभी चैन से रहने नहीं देता है । उसका एक मात्र उद्देश्य मित्र से अनुचित लाभ उठाना होता है। समय पड़ने पर वह मित्र के शत्रु से भी हाथ मिलाकर उसे (मित्र को) खतरे में झोंक देता है।

          उपसंहार : सच्ची मित्रता गंगाजल के समान निर्मल होती है जिसके स्पर्शमात्र से हृदय पवित्र हो जाता है। धन-दौलत, सम्मान, ऐश्वर्य एवं सम्पन्नता भी सच्ची मित्रता के सामने तुच्छ है

(घ) सरस्वती पूजा

भूमिका-माता सरस्वती विद्या और ज्ञान की देवी हैं । इनकी पूजा माघ महीने के शुक्ल पक्ष की पंचमी अर्थात् ‘वसंत पंचमी’ को होती है । उस दिन से ही वसंतोत्सव आरंभ हो जाता है । ऐसा माना जाता है कि वसंत पंचमी के दिन से जाड़ा विदा हो गया और गर्म कपड़े की आवश्यकता नहीं रही ।भारत के सभी विद्यालयों में माँ सरस्वती की पूजा की जाती है । सरस्वती पूजा सारे विद्यार्थियों का पर्व है ।

सरस्वती का रूप और अर्थ-माँ शारदा की पूजा का अपना महत्त्व है। हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने सरस्वती को विद्या और ज्ञान की देवी या अधिष्ठात्री माना है। उनका वाहन हंस है। यह हंस ज्ञान और सत्यासत्य का निर्णायक है। उजला कमल सरस्वती का आसन है, जो सादगी और स्वच्छता का प्रतीक है। सरस्वती का वस्त्र और रंग भी उजला है-सर्वशुक्ला सरस्वती कही जाती है । इससे हमें यह शिक्षा मिलती है कि जो शिक्षा पाना चाहते हैं उन्हें रंगीन और कीमती वस्त्र नहीं धारण करना चाहिए । सरस्वती के एक हाथ में वीणा है जो बतलाती है कि विद्या के साथ संगीत का होना भी आवश्यक है । यह संगीत जीवन को मधुर और सरस बनाता है । सरस्वती के दूसरे हाथ में पुस्तक है, जो ज्ञान की शिक्षा देती है । सरस्वती पूजा का सबसे बड़ा उद्देश्य यह है कि इस दिन हम सभी माँ सरस्वती के चरणों में अपने को सौंप दें और उनसे ऊँचे-ऊँचे विचार और ज्ञान पाने की प्रार्थना करें।

पूजा-विधि-पूजा के लिए सरस्वती की सुन्दर प्रतिमा बनवायी जाती है और इसे सुन्दर-से-सुन्दर वस्त्रों तथा माला आदि से सजाया जाता है । पूजा सुबह आठ बजे शास्त्रीय विधि से की जाती है । पूजा की समाप्ति के बाद प्रसाद वितरण का कार्य सम्पन्न किया जाता है । पूजा का प्रसाद ग्रहण करने के लिए प्रत्येक छात्र के अभिभावक को भी बुलाया जाता है । पूजा काल में सभी अभिभावक आकर बैठते हैं और पूजा की समाप्ति के बाद प्रसाद लेकर अपने घर जाते हैं । प्रसाद वितरण का यह क्रम लगभग दो घंटे तक चलता है।

पूजा का महत्त्व-सरस्वती पूजा हमारे लिए ज्ञान का प्रकाश लाती है । सच्ची विद्या की शिक्षा देती है और उस दिन हम यह प्रतिज्ञा दुहराते हैं कि पढ़-लिखकर हम अपना, अपने परिवार का, अपने समाज और देश का नाम ऊँचा करेंगे । हर वर्ष हमें सरस्वती पूजा ऐसा ही उपदेश दे जाती है ।

उपसंहार-कुछ लोग सरस्वती पूजा के दिन जुलूस में उच्छृखलता पर उतारू हो जाते हैं । यह पूजा-भावना के विपरीत है । हमें यह पूजा पूरी शालीनता से करते हुए प्रार्थना करनी चाहिए- वीणावादिनी वर दे। प्रिय स्वतंत्र रव, अमृत मंत्र नव, भारत में भर दे ।

(ङ) राष्ट्रीय पर्व (स्वतंत्रता दिवस)

हम भारतवासी प्रत्येक वर्ष 15 अगस्त को अपनी स्वतंत्रता की वर्षगांठ मनाते हैं । इस दिन संपूर्ण देश में (तिरंगा) राष्ट्रीय ध्वज फहराया जाता है। हम भारतवासी अपने राष्ट्रध्वज के समक्ष उसके सम्मान में राष्ट्रीय गीत गाते हैं । 15 अगस्त को भारत में झोंपड़ी हो या महल, शहर हो या गाँव, विद्यालय हो या कार्यालय, ट्रेन हो या बस, वायुयान हो या जलयान-सब जगह तिरंगा लहराता हुआ दिखाई पड़ता है । विद्यार्थियों की उमंग तो देखते ही बनती है। सभी शिक्षण संस्थाओं में यह राष्ट्रीय पर्व बड़े उल्लास के साथ मनाया जाता है । सरकारी और निजी संस्थाओं में भी इस दिन राष्ट्रीय ध्वज फहराया जाता  है । प्रधानमंत्री दिल्ली के लाल किले पर राष्ट्रीय ध्वज फहराते हैं और राष्ट्र के नाम संदेश देते हैं । इसकी पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति का संदेश प्रसारित होता है।

          स्वतंत्रता दिवस (15 अगस्त) हमारा पुनीत राष्ट्रीय पर्व है । इस पर्व को मनाने के पीछे हमारा एक ही उद्देश्य है कि हम उन वीर सपूतों को याद करें जिनके त्याग और बलिदान के चलते हमें स्वतंत्रता प्राप्त हुई । आज के दिन हम अपने शहीदों को याद कर अपने भीतर प्रेरणा का अनुभव करते हैं । वास्तव में यह पर्व हमें सतर्क करता है कि स्वतंत्रता की रक्षा करना हमारा नैतिक दायित्व है । प्रत्येक भारतवासी को आज के दिन भारत की समृद्धि और अखंडता की सुरक्षा के लिए दृढ़ प्रतिज्ञा करनी चाहिए । स्वतंत्रता का अर्थ स्वच्छंदता नहीं होता ।

        स्वच्छंदता स्वतंत्रता के अर्थ को खंडित करती है । हम स्वतंत्र हैं-इसका अर्थ सिर्फ यही हुआ कि हम देश के हित में अपना हित समझते हैं । हमें स्वतंत्रता तो प्राप्त हो गई, पर हमारे चिंतन और आचरण से अब भी परतंत्रता की गंध आती है । हमें इसे दूर करने का संकल्प लेना होगा।

4. अपने क्षेत्र में बढ़ते अपराधों की रोकथाम के लिए थानाध्यक्ष को गश्त बढ़ाने हेतु पत्र लिखें ।

अथवा

जनसंख्या विस्फोट के परिणाम पर दो छात्रों के बीच संवा लिखिए।

उत्तर-

सेवा में,
              थानाध्यक्ष,
               कोतवाली पुलिस चौकी, पटना ।
              विषय-पुलिस गश्त बढ़ाने हेतु निवेदन ।
महोदय,
             मैं आपके थाने के अंतर्गत आने वाले सालीमपुर क्षेत्र का निवासी हूँ, और इस पत्र के द्वारा आपका ध्यान इस क्षेत्र में दिनोंदिन बढ़ते अपराधों की ओर आकर्षित कराना चाहता हूँ । गत एक माह से हमारे क्षेत्र में आपराधिक घटनाओं में वृद्धि हुई है, जिसके कारण यहाँ के निवासी चिन्तित और घबराये हुए
           चोरी की घटनाओं में लगातार वृद्धि हुई है । पार्क में भी कुछ असामाजिक लोग बैठकर जुआ खेलते रहते हैं, जो आने-जाने वालों को न केवल तंग करते हैं बल्कि लूटते भी हैं । अफीम, चरस तथा अन्य नशीले पदार्थों को बेचते हुए
भी कुछ लोग पाये गए हैं ।
                आपसे विनम्र प्रार्थना है कि इस क्षेत्र में पुलिस की गश्त बढ़ा दीजिए, साथ ही सिपाहियों की संख्या में भी वृद्धि कर दीजिए । आशा है कि आप हमारी परेशानी को समझकर सुरक्षा का समुचित प्रबंध करेंगे । इसके लिए हम आपके आभारी रहेंगे ।
सधन्यवाद
भवदीय
दि. 18-03-2022

संजीव
सालिमपुर, पटना

अथवा
आदित्य :-

आदित्य : मित्र रंजन ! क्या तुमने आज का अखबार देखा ?

रंजन :नहीं, लेकिन क्यों?

आदित्य :मैंने पढ़ा कि जनसंख्या में हमारा देश अब चीन की बराबरी करने वाला है । राम जाने आने वाले समय में क्या होगा ।

रंजन :क्या होगा ? सब सही होगा । मुझे तो खुशी है कि किसी एक काम में तो हमने चीन की बराबरी कर ली।

आदित्य : क्या कह रहे हो ? यदि ऐसा ही हाल रहा तो सरकार द्वारा लोगों के कल्याण के लिए बनाई जानेवाली योजनाएँ
कभी सफल नहीं होगी ।

रंजन: तो तुम चाहते हो जैसे चीन में जनसंख्या नियंत्रण के लिए कठोर कदम उठाए गए हैं वैसे ही हमारी सरकार को उठाना चाहिसा ।

आदित्य : बिल्कुल सही । तुम्हें पता है कि चीन की जनता भी अपने सरकार का साथ दे रही है।

रंजन: आशा है इस बात को हमारे देश की जनता भी समझ जाए और हमारा देश भी खुशहाल हो जाए ।

 

5. निम्नलिखित प्रश्नों में से किन्हीं पाँच प्रश्नों के उत्तर प्रत्येक लगभग 20-30 शब्दों में दें:

(क) जातिवाद के पोषक उसके पक्ष में क्या तर्क देते हैं ?
उत्तर- जातिवादियों का कहना है कि आधुनिक सभ्य समाज में कार्य कुशलता के लिए श्रम-विभाजन आवश्यक है। श्रम-विभाजन जाति-प्रथा का ही दूसर रूप है। हिन्दू धर्म पेशा-परिवर्तन की अनुमति नहीं देता है। परंपरागत पेशों में व्यक्ति दक्ष हो जाता है और वह अपना कार्य सफलतापूर्वक सम्पन्न करता है।

(ख) लेखक द्वारा नाखूनों को अस्त्र के रूप में देखना कहाँ तक संगत है?
उत्तर-जब मनुष्य जंगली था तब उसे नाखून की आवश्यकता थी। उसकी जीवन रक्षा के लिए नाखून बहुत जरूरी थे । असल में वही उसके अस्त्र
थे। उन दिनों उसे जूझना पड़ता था, प्रतिद्वंद्वियों को पछाड़ना पड़ता था, नाखून उसके लिए आवश्यक अंग था ।

(ग) बहादुर के चले जाने पर सबको पछतावा क्यों होता है ?
उत्तर-बहादुर के चले जाने के कारण अब विश्वसनीय नौकर का अभाव हो गया। वह हँसमुख, मिलनसार और मेहनती था । वह सदैव सेवा में सुबह से शाम तक लगा रहता था। इस प्रकार बहादुर के चले जाने के कारण सबको पछतावा होता है।

(घ) बिरजू महाराज के गुरु कौन थे ? उनका संक्षिप्त परिचय दें।
उत्तर-बिरजू महाराज के गुरु उनके बाबूजी थे। उनके बाबूजी की यह आदत थी कि वे अपना दुख प्रायः किसी से नहीं कहते थे और किसी का भला
करने के लिए एक का पैसा लेकर दूसरे को दे देते थे।

(ङ) हरिरस से कवि का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-हरिरस से कवि का अभिप्राय गुरु-कृपा और ईश्वर रसास्वादन से है । जिसने अपने जीवन को राम-नाम में सराबोर कर दिया उसने इस भवसागर से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर लिया।

(च) कवि जनता के स्वप्न का चित्र किस तरह खींचता है ?
उत्तर-स्वाधीन भारत की नींव जनता है। गणतंत्र जनता पर निर्भर है। जनता का स्वप्न अजेय है। सदियों से अंधकार युग में रहनेवाली जनता प्रकाश युग में जी रही है। वर्षों से स्वप्न को संजोये रखने वाली जनता निर्भय होकर एक नये
युग की शुरूआत कर रही है। आज अंधकार युग का अंत हो चुका है। विश्व में विशाल जनतंत्र का उदय हुआ है। अभिषेक राजा का नहीं प्रजा
का होने वाला है।

(छ) कविता का समापन करते हुए कवि अपने किन अंदेशों का जिक्र करता है और क्यों ?
उत्तर-इस भौतिक युग में मनुष्य स्वार्थी बन गया है। दूसरों के सुख-दु:ख से उसका कोई लेना-देना नहीं है । वातावरण को शुद्ध रखने वाला वृक्ष स्वयं असुरक्षित हो गया है। मनुष्य को मित्र समझने वाला वह स्वयं असहाय बन गया है। वृक्ष से ही घर, नगर, देश सुरक्षित है किन्तु दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु हम वृक्ष को धुआँधार काटते जा रहे हैं। यदि ऐसी ही स्थिति रही तो वह दिन दूर नहीं है जब जीव-जगत का अस्तित्व ही मिट जाएगा।

(ज) ‘इंकार करना’ न भूलनेवाले कौन हैं ? कवि का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-हठीला जीवन जीने वाले वैसे लोग जो त्रस्त होने पर भी अपने आत्मबल को कमजोर नहीं कर पाये हैं। अभावों के बीच भी अपने तेज को संजोये रखते हैं। हठयोगी एवं कर्मयोगी रहनेवाले वे विषम परिस्थितियों में भी अपनी जिज्ञासा और आत्मबल को मजबूत किये रहते हैं।

(झ) कहानी के आरंभ में मदुरै के बारे में क्या बताया गया है ?
उत्तर-कहानी के शुरू में ही यह बतलाया गया है कि मदुरै पांडेय लोगों की दूसरी राजधानी है। हमारी देश में प्राचीन मानचित्रों में ‘मथरा’ नाम से उल्लिखित, अंग्रेजों द्वारा ‘मदुरा’ और यूनानी लोगों द्वारा ‘मेदोरा’ कहलाने वाला नगर तमिल लोगों का मदुरै ही है।

(q) ज्योतिषी ने मंगु के बारे में क्या कहा था ?
उत्तर-ज्योतिषी ने मंगु के बारे में उसकी माँ से यह कहा था कि आनेवाला अगहन का महीना मंगु के लिए बड़ा अच्छा होगा और वह ठीक हो जाएगी।

 

6. निम्नलिखित प्रश्नों में से किसी एक प्रश्न का उत्तर लिखिए (शब्द सीमा लगभग 100):

(क) बिरजू महाराज की अपने शागिर्दो के बारे में क्या राय है ?
उत्तर-बिरजू महाराज के अनुसार उनके शागिर्दो में दो तरह के लोग हैं एक तो वे जो पूरा-पूरा परिश्रम करते हुए अपनी पहचान बना रहे हैं और दूसरे वे लोग जिनमें अभी पूरी लगनशीलता नहीं आई है । किंतु दुख की बात है कि थोड़ी तरक्की करने वाले लोग भी थोड़ी-सी तालियाँ बटोरकर और धन कमाकर संतुष्ट हो जा रहे हैं। उनमें कला के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव नहीं है। कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो इसे महज मनोरंजन समझ रहे हैं।

       अत: नई पीढ़ी में एकनिष्ठता का अभाव परिलक्षित होता है। एक बात और है कि अब के लोग थोड़ा-सा काम मिल जाने और कमा लेने को ही अपनी कला की ऊँचाई मानने लगते हैं

(ख) निम्न पंक्तियों का अर्थ लिखें
एक मक्खी का जीवन-क्रम पूरा हुआ
कई शिशु पैदा हुए, और उनमें से
कई तो मारे भी गए
दंगे, आगजनी और बमबारी में ।

उत्तर-उपर्युक्त काव्य पंक्तियों के माध्यम से कवि ने एक मक्खी के ने जीवन-क्रम से मानव के जीवन-क्रम की तुलना करते हुए अपने मनोभावों को प्रकट किया है । आज मानव जीवन खतरों के दौर से गुजर रहा है । चारों तरफ दंगा, आगजनी, बमबारी से जन-जीवन अस्त-व्यस्त है । अराजक स्थिति है । असुरक्षा और आतंक के साये में जीने के लिए मानव विवश है ।

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